इंसानियत की मिसाल: चुपचाप मदद पहुँचा गए सरबजीत सिंह बॉबी,

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कोई शोर नहीं, सिर्फ़ सेवा

जब थुनाग की वादियों में आफ़त बरसी, और माताओं-बहनों के चूल्हे ठंडे पड़ने लगे, तब एक नाम बिना किसी शोर-शराबे के मदद लेकर पहुँच गया सरबजीत सिंह उर्फ़ बॉबी भाई। ना कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस, ना कोई तस्वीरें, ना ही सोशल मीडिया का ढोल। सिर्फ़ एक सीधी कॉल भाई, शाम छह बजे नेरचौक पर दो गाड़ियां खड़ी होंगी। इसमें कुछ जरूरत का सामान है। कोई भरोसेमंद भाई भेज देना। एक-एक चीज़ ज़रूरतमंद तक पहुँचनी चाहिए। और जब लोग पहुँचे, तो सच में वहाँ दो गाड़ियां तैयार थीं। 5330 किलो चावल, 1800 किलो दाल, 1500 कंबल, 600 मेट और बर्तन खरीदने के लिए 21,000 रुपये नकद। ना खुद आने की ज़िद, ना फोटो खिंचवाने की चाहत। बस वाहेगुरु का नाम लिया और सब कुछ बाढ़ प्रभावितों के हवाले कर दिया। शिमला के इस बेटे ने यह सिखा दिया कि मदद का असली मतलब क्या होता है- बिना दिखावे के, पूरी नीयत और जिम्मेदारी के साथ। बॉबी भाई, आपका यह योगदान आने वाली नस्लों के लिए एक रास्ता दिखाता है। आप अमर रहेंगे, आपके जज़्बे को सलाम।

सरबजीत सिंह बॉबी

किसी को ये बताने की कोशिश भी नहीं कि “मैंने दिया”, बस वाहेगुरु का नाम लिया और कह दिया – ये उनके हक़ का है जिनका सबकुछ बह गया।

वो खुद सामने नहीं आए, क्योंकि उन्हें अपनी नहीं, ज़रूरतमंदों की परवाह थी। ना तस्वीरें चाहिए थीं, ना तालियां, ना अख़बारों की सुर्खियां। उनका मानना था कि मदद वही है जो दिल से दी जाए और सही जगह तक पहुँचे। जब स्थानीय लोग गाड़ियों से सामान उतार रहे थे, उनकी आंखों में आंसू थे और होंठों पर यही दुआ वाहेगुरु, ऐसे नेक लोगों को सलामत रख। शिमला के इस बेटे ने यह सिखा दिया कि सेवा का असली मतलब किसी शोहरत के लिए नहीं, बल्कि इंसानियत के लिए होता है। जब बाकी लोग माइक और कैमरे के पीछे खड़े होकर बातें कर रहे थे, वो उन चूल्हों की आग जलाने की फिक्र कर रहे थे जो बुझ चुके थे। बॉबी भाई, आपकी यह निःस्वार्थ सेवा आने वाली नस्लों के लिए रास्ता दिखाने वाली है। आप अमर रहेंगे। आपकी इस इंसानियत को हम सलाम करते हैं।