“पुष्पा” पहाड़ों में: यह प्राकृतिक आपदा नहीं, जंगल अपराध है

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हिमाचल प्रदेश की नदियों ने इस मानसून केवल बाढ़ का पानी नहीं बहाया, बल्कि कड़वे सच भी उजागर किए। तेज़ बारिश के बाद धाराओं में बहते हुए लकड़ी के स्लीपर स्पष्ट संकेत थे कि यह पेड़ प्राकृतिक आपदा से नहीं गिरे, बल्कि काटे और तस्करी के लिए तैयार किए गए थे।

वायरल हुए इन वीडियो ने पूरे देश को झकझोर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए इसे “कटु सच्चाई” करार दिया और राज्यों व केंद्र की एजेंसियों से जवाब तलब किया है। यह कदम स्वागतयोग्य है, किंतु बहुत देर से आया है।

वर्षों से पर्यावरणविद चेताते रहे हैं कि हिमालयी पट्टी पर अवैध कटाई, अवैज्ञानिक निर्माण और औपचारिकता भर पूरी की जाने वाली पर्यावरणीय आकलन प्रक्रियाएँ पहाड़ों की नाज़ुक संतुलन-व्यवस्था को तोड़ रही हैं। यही वजह है कि आज बाढ़ और भूस्खलन को हम “प्राकृतिक आपदा” कहकर टालते हैं, जबकि यह मानवीय लापरवाही और लालच का नतीजा हैं।

सोशल मीडिया ने इसे फ़िल्म पुष्पा से जोड़ा है। लेकिन यह व्यंग्य नहीं, हक़ीक़त का कड़वा प्रतिबिंब है। असली खलनायक वर्दीधारी भी हो सकते हैं। हिमाचल के उद्योग मंत्री ने खुद वन अधिकारियों की जवाबदेही पर उंगली उठाई है। सवाल यह है—क्या यह केवल लापरवाही है या मिलीभगत?

वन विनाश का असर सिर्फ़ पेड़ों तक सीमित नहीं है। यही कटाई मिट्टी को कमजोर करती है, नदियों को उग्र बनाती है और गाँवों को उजाड़ देती है। यह वन कुप्रबंधन अब जीवन और बुनियादी ढांचे की कीमत वसूल रहा है।

यदि भारत सचमुच जलवायु अनुकूलन और आपदा-रोधी विकास चाहता है, तो यह क्षण केवल सुर्ख़ी नहीं, बल्कि नीतिगत मोड़ बनना चाहिए। सरकार और समाज दोनों को मिलकर ठोस कदम उठाने होंगे:
• ड्रोन और सैटेलाइट से वास्तविक समय की निगरानी
• अनुमति और वन स्वीकृति डेटा को सार्वजनिक करना
• केवल तस्करों नहीं, बल्कि अफ़सरों और ठेकेदारों को भी कठोर दंड
• स्थानीय समुदायों की भागीदारी और सुरक्षा
• भारतीय वन सेवा की जवाबदेही में सुधार

हिमाचल में जो दृश्य दिखा, वह उत्तराखंड, अरुणाचल और पश्चिमी घाटों में भी दोहराया जा सकता है। यह किसी एक राज्य की विफलता नहीं, बल्कि धीमी गति से पनपता राष्ट्रीय संकट है।

अब हमें स्वयं से पूछना होगा—और कितनी त्रासदियाँ हमें यह सिखाने आएँगी कि जलवायु सुरक्षा की शुरुआत पेड़ों की जड़ों से होती है? काग़ज़ी नीतियाँ पर्याप्त नहीं हैं। अगर हालात नहीं बदले, तो हर मानसून हमारी नीति टुकड़ों में बिखरकर नदियों में बहती रहेगी।